१. श्री कृष्ण बोले – हे अर्जुन तुम्हे उस असमय में ये मोह माया किस हेतु प्राप्त हुआ? क्योकि यह ना तो श्रेष्ठ पुरषो द्वारा आचरित हैं, और ना स्वर्ग को देने वाला, और ना ही कृतको को करने वाला ही है।
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२. इसलिए हे अर्जुन नपुंसकता को मत प्राप्त हो, ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।
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३. हे अर्जुन तू ना शौक करने योग्य मनुष्य के लिए शोक करता है और पंडितो से वचनों को कहता है परंतु जिनके प्राण चले गए हैं उनके लिए और जिनके प्राण नहीं है उनके लिए भी पंडित जन शौक नहीं करते।
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4. हे अर्जुन सर्दी गर्मी और सुख दुख को देने वाली इंद्रियां और विषयों के संयोग को उत्पत्ति विनाशसील और अनित्य है इसलिए इसको तुम सहन करो।
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5. जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है वह दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में ना तो किसी को मारता है और ना किसी के द्वारा मारा जाता है।
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6. यह आत्मा किसी के काल में भी ना तो जन्मता है और ना मरता है तथा नए उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह जन्मा नृत्य सनातन पुरातन है शरीर के मारे जाने पर भी या नहीं मारा जाता।
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7. जो पुरुष इस आत्मा को नाश रहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय मानता है वह पुरुष कैसे किसी को मरवाता है और कैसे किस को मारता है। श्रीमद्भगवद्गीता
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8. जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है वैसे ही जीवात्मा पुरानी शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।
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9. इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते इसको आग नहीं जला सकते इसको जल नहीं गला सकता और हवा नहीं सुखा सकता।
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10. किंतु यदि तुम इस आत्मा को सदा जन्म ने वाला तथा सदा मरने वाला मानते हो तो भी यह महा बाहों तू इस प्रकार करने वाली योग्य नहीं है।
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