हेल्लो दोस्तों यह लेख मनुष्य के जीवन की वास्तविकता के आधार पर लिखा गया है आपको इस लेख को पढ़ने के बाद एहसास हो जायेगा की मनुष्य आखिर कितना अकेला हो चुका हैं, और मनुष्य का यही अकेलापन उसे आर्टिफीसियल बना चुकी हैं और यह मनुष्य दूसरों की नक़ल करते करते खुद को ही भूल चुका हैं। तो चलिए इस लेख को पूरा पढ़ते हैं यह लेख “भीड़ का अकेला” निश्चल यादव के द्वारा लिखा गया हैं।
भीड़ का अकेला
“पथिकों की भीड़ में पथिक ये बिल्कुल अकेला है, नज़ाकत से आंसुओ को छिपा मुस्कुराकर हर भीड़ में न जाने किसने कितना झेला है।”
बचपन से पढ़ी कविताओं, कहानियों को पढ़ कर हमेशा मैं सोचा करती थी की कठिन पर्वतों के शिखर को छूने निकले कदमों को चलने का कितना परिश्रम करना पड़ता होगा, किंतु समय के बहाव ने समझाया है कि आजकल पक्की सड़क के सीधे रास्तों में भी अकस्मात मोड़ पर चलना भी विशाल पर्वतों के शिखर की ओर बढ़ने जैसा ही है।
आज मानव हर संभव क्षेत्रों में जाने को बेहद उत्सुक रहता है या यूं कह सकते हैं की आज का नव-मानव हर असंभव क्षेत्र में अपना परचम लहराने के लिए हर असंभव प्रयास करने से भी पीछे नहीं हटता। आज की इक्कीसवीं सदी का मनुष्य उपलब्धियों का मनुष्य है, आज समाज का हर व्यक्ति हर सुविधा को पूर्ण रूप से अपने उपयोग में लाकर खुद को संतुष्ट करना चाहता है।
किंतु हर कोई सिर्फ चीजों को जीतकर, अपनी उपलब्धियों को सभी ओर जताकर खुद को खुश रखना चाहता है। पर असल मायनों में वो जिसे खुशी का नाम देता है वो तो सिर्फ उसकी खुद के लिए सांत्वना है।
आज लगभग हर जन खुद को सबकी नजरों में साबित करने की दौड़ में इतना आगे पहुँच गया है की वह खुद को भी याद नहीं। आज लगभग हर व्यक्ति जिन उपलब्धियों को बतौर कामयाबी की मिसाल पेश करता है, अक्सर उन्हीं मिसालों के पीछे एक ऐसा शरीर लिए बैठा है जो खुद से अंजान है, जिसकी जिंदगी कंप्यूटर के बटनों की तरह दब दब कर ऐसी हो गई है कि उसने खुद को कहीं दबा दिया है।
इतना काम, इतने लोग होने के बावजूद इंसान आज बहुत अकेला है। इसका कारण शायद ये की वह सिर्फ उपलब्धियों को गिनने लगा है, ओर उसकी जिंदगी में लोगों की गिनती बहुत कम होगई है।
व्यक्ति आज सबकुछ गूगल पर खोज रहा है और उसके पास उसमें खुद में ढूंढने का शायद समय ही नहीं या वो कोशिश नहीं करना चाहता। तभी आज एक मनुष्य ढेरों डिग्रियां होते हुए भी बस जरूरत की समय इंसान के पास कोई होता नहीं।
आज हवा के झोंको की कोशिशों को ताकते हुए भरी बरसात का इंतजार कोई नहीं करता, घरों से बतियाने का रिवाज़, वो ईंटों का हिसाब अब सबने रोक दिया क्योंकि आज इंसान खुद से जुड़ा ही नहीं हुआ इसीलिए रोते वक्त वो कंधों की चाहत रखता है पर कोई हक से पूछने वाला व्यक्ति नही।
शायद इसीलिए कहा गया है की खुद की खुशी में कभी कभी लालची बनना भी ठीक है।
अब तू ज़रा पीछे मुड़, खोए हुए तुझ से जुड़, जो कुछ दफा हिम्मते हार भी गया तो क्या जिंदगी तो अभी बाकी है,
थोड़ा खुद के लिए हंसना शुरू करदो, जिंदगी के कमान में तो ना जाने कितने तीर अभी बाकी हैं।
Thanks For Reading…💖
Alone in the Crowd a Short Story
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This Article is Written By Nischal Yadav
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